हिन्दू धर्म में दशा माता की पूजा तथा व्रत करने का विधान है। माना जाता है कि जब मनुष्य की दशा ठीक होती है तब उसके सभी  कार्य अनुकूल होते हैं, किंतु जब यह प्रतिकूल होती है तब मनुष्य को बहुत परेशानी होती है। इसी परेशानियों से निजात पाने के लिए इस व्रत को करने की मान्यता है।  

आईये जानते है कैसी है मान्यता और महिलाये इस त्यौहार को कैसे मनाती है। 

DASHA AARTI – VIDEO 
-औरतों के द्वारा किये जाने वाले दशामाता से जुड़े व्रताष्ठान होली के दूसरे दिन धुलंडी से ही इनका शुभारंभ हो जाता है । ये निरंतर दस दिन किये जाते हैं । दस दिन का यह समय ‘अगता’ कहलाता है । इस दौरान औरतें खांडने, पीसने, सीने, कातने तथा नहाने-धोने जैसा कार्य नहीं करतीं । 
        -होली जलते समय एक तरफ मामा तथा दूसरी तरफ भानजा खड़े रह कर ‘कूकड़ी’ को दस बार होली की ज्वाला में से निकालते हैं। इस कूकड़ी के दस तार मिलाकर हल्दी-पानी में रंग लिये जाते हैं और उनमें जो ‘वेलें’ बनाई जाती है, वे ही ‘दशामाता की वेलें’ कही जाती है । एक-एक वेल के दशामाता के नाम की दस-दस गांठे लगाई जाती हैं । दस ही दिन इन्हें दशामाता की दस कहानियां सुनाई जाती हैं । प्रतिदिन दस कहानियां कही जाती है और उपसंहार के रूप में दशामाता के दस गीत गाये जाते हैं । दशमीं को पीपल पूजा के समय इन ‘वेलों’ को भी दस परिक्रमा दिलाई जाती है और तब ही गले में धारण की जाती है । ये ‘वेलें’ कहीं कहीं ‘डोरा’ भी कहलाती है । दसमीं को तो नई ‘वेल’ धारण की जाती है, पर उसके बाद भी वेल पुरानी पड़ जाने, गल जाने, टूट जाने अथवा कहीं खो जाने पर दूसरी ‘वेल’ धारण की जाती है । तब तक कोई भी अन्न-जल नहीं लेता है । कहीं कहीं महिलाओं के साथ पुरुष भी दशामाता का व्रत करते हैं । वे गले में सफेदवेल रखते हैं । दशामाता व्रतानुष्ठान का प्रचलन सभी जातियों में देखने को मिलता है । विवाह के बाद आने वाली प्रथम दशापूजनी पर ससुराल वाले बहू को उसके पीहर से लाकर दशा दिलाते हैं । बहू दशामाता का व्रत कर उसकी वेल गले में धारण करती है । इस प्रकार यह व्रत आजीवन चलता रहता है । विधवा-सधवा सभी में इसकी मान्यता है ।

      -गांवों तथा शहरों में सब जगह मोहल्लें अथवा गुवाडि़यों में दशामाता का स्थान-थानक अथवा थड़ा होता है, जहां महिलायें समूह रूप में एकत्रित होकर दशामाता की कहानियां सुनती हंै । कहानी सुनने वाली हर महिला कुंकुम, घी, गुड़, अगरबत्ती और आखे लाती है । दीवाल पर दशामाता का प्रतीक दस बिंदियों पर बिंदी लगाती है । दीपक मंे घी पूरती है । गुड़ की डली रखती है और दीपक के पास आखे रख कहानी सुनती है । कहानी कहने वाली पाट के पास बैठ जाती है । दशामाता की कहानियों में सबसे बड़ी नल राजा और दमयन्ती की कहानी है । यह इसकी प्रमुख कथा है जो प्रतिदिन नहीं कही जाकर पहले और अंतिम दिन कही जाती है । इसमें रानी दमयन्ती के गले में धारण की हुई दशामाता की वेल को सामान्य धागा समझ राजा नल तोड़ डालता है तब पूरे राजपरिवार पर विपतियों का पहाड़ टूट पड़ता है । राज-परिवार छोड़ उन्हें दर-दर भटकनें और नाना कष्टों को सहने के लिये मजबूर होना पड़ता है । अंत मेें रानी पुनः दशामाता की शरण लेती है तब ही जाकर उनका अवदशा से छुटकारा होता है । दशामाता की संभी कहानियां का हुंकारा लगता है परन्तु एक ‘लूमिया’ की कहानी ऐसी है जिसका हुंकारा नहीं लगता है । यह प्रतिदिन की कहानियां के अंत में कही जाती है ।
      -दशामाता के थापों में ‘मंदरी’ बनाई जाकर उसमें कहीं अकेली दशामाता तथा कहीं उसे ‘दाड़ाबावजी’ के साथ दिखाई जाती है । मंदिर पर कलश धजा के साथ-साथ वृक्ष, कांच-कांगसी, आटी-डोरा, वांदरवाल, फूल, हाथी, घोड़ा, मोर, हंस आदि भी दिखाये जाते हैं । दशामाता का थापा ‘थड़ा’ नाम से भी जाना जाता है । पीपल में दशामाता का निवास कहा गया है । इसलिये अंतिम दिन महिलायें चैत्र कृष्णा दशमीं को बड़े सवेरे नहा-धो, नये वस्त्राभूषण में पूजा का थाल लिये पीपल पूजा के लिये निकल पड़ती है । इस समय समूहबद्ध दशामाता दाड़ाबावजी के आहुवाहनपटक गीत गाये जाते हैं । पीपल पहुंचकर औरतें उसके तने में जल चढ़ाती है । कंकू, काजल, मेंहदी की दस दस बिंदियां लगा कपड़ा-लच्चा चढ़ाती है और पूजा-धोक के बाद दस परिक्रमा देती है । पीपल की छाल उतारती है और पीपल पूजा के बाद बोदरी पूजती है । 
ऑनलाइन खोज  प्रेषक   -डाॅ. कविता मेहता, बीकानेर,

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