मेवाड़ के आध्यात्मिक इतिहास के महापुरुष गुरु अंबेश

(जन्म तिथी विशेष) 



   संपूर्ण विश्व में मेवाड़ की धरती को भक्ति और शक्ति की पुण्य धरा के रूप में वर्णित किया जाता है इस महान धरा पर ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया, संवत् 1962, नक्षत्र-पुनर्वसु,राशि-मिथुन और राशि का स्वामी बुध था और आज सूरज की दैदीप्यमान रश्मि उस दिन  थामला गाँव के सोनी परिवार का मानो अभिनंदन कर रही थी । 

  उत्तम श्राविका प्यारीबाई एवं श्री किशोरीलाल जी के घर आज एक ऐसा कुल गौरव अवतरित हुआ जो आने वाले समय में पूरे मेवाड़ को एक अनूठी आध्यात्मिक महक से महकाएगा ।जिस प्रकार उष्णता की पराकाष्ठा को सहन किए बिना स्वर्ण भी कुंदन नही बनता वैसे ही साधारण और सांसारिक सुख से परिपूर्ण परिवार या जीवन समाज को नई रोशनी प्रदान नही कर सकता।

श्री सौभाग्यमुनिजी एवं श्री विजयप्रभाजी जैसे कई उदाहरण है।
       हम्मीरमल( अंबालाजी)के क्षीण पुण्योदय का उदयकाल प्रारम्भ हुआ अचानक प्रेतादि लगने से भाई की मृत्यु और पुत्र वियोग के दुख से पिता की मृत्यु मानो वो एक दिन जीवन भर के दुःख एकसाथ दे गया।

   बाल्यकाल में पिता की मृत्यु से परिवार की ज़िम्मेदारी सिर पर आई तो काम-धन्धा भी सम्भाला और नौकरी भी की, गुरुवर मोतीलालजी मसा. के सम्पर्क में आयें और दीक्षा की भावना प्रबल हुई , कई कष्ट आए ज़ैल भी हुई और अंतत: दीक्षा मेवाड़ के मंगलवाड़ में ग्रहण की।
          
उपरोक्त सारी घटनाओं को विस्तृत आकार दिया जाए तो एक हज़ार से ज़्यादा पेज लिखें जा सकते है लेकिन एक तो मेवाड़ के घर-घर में इन सबकी जानकारी है दूसरा लेखक पुण्य तिथि पर वो लिखना चाहता है जो मेवाड़ के लिए अमिट है।जब-जब जहाँ ज़रूरत होती है वहाँ पुण्योदय से आवश्यकतानुसार अवतरण अवश्य होता है। 

   कभी-कभी तो पुण्यो की क्षीणता भी नए युग के आगमन की दस्तक दे जाता है। मेवाड़ के तत्कालीन स्थानकवासी इतिहास में ऐसा ही घटित हुआ । मेवाड़ भूषण श्री मोतीलाल जी मसा. अपने सहवर्ती संतो के साथ श्रावकों की मान्यताओं में आई भिन्नता से लड़ रहे थे और सशक्त साथ दे रही थी समक़ालीन साध्वीयाँ।ऐसे में एक ऐसे संत की आवश्यकता महसूस हो रही थी कि वो बिखराव को रोक सके एवं सम्प्रदाय को प्रभावशाली एवं शक्तिशाली बना सके। श्री अम्बालालजी मसा. की दीक्षा ने आशा की नई रोशनी की आस प्रदान की ।
   मेवाड़ भूषण श्री मोतीलालजी मसा. स्वयं सभी विपरीत परिस्थितियों से लड़ सके उतने सशक्त तो थे लेकिन अगर सम्प्रदाय को युवा नेतृत्व मिल जाए तो भविष्य सुरक्षित हो जाता है । तत्कालीन समय में जैन कॉन्फ़्रेन्स नामक संगठन विभिन्न स्थानकवासी सम्प्रदायों की एकता का प्रयास कर रहा थी,जो आगे जाकर श्रमण संघ की मातृ संस्था के नाम से विख्यात हुई ।

मेवाड़ भूषण श्री मोतीलाल जी मसा. ने अपने आचार्य पद का त्याग कर मेवाड़ के लिए नए युग का सूत्रपात कर दिया। अस्वस्थता एवं अवस्था को देखते हुए श्री मोतीलालजी मसा. देलवाड़ा में स्थानापन्न (ठाणापती) हो गए और श्री अम्बालालजी मसा. उनकी सेवा में मानो वहीं स्थिर होगए।
             जैन कॉन्फ़्रेन्स स्थानकवासी समाज की एकता के लिए पूर्ण पुरुषार्थ के साथ प्रयासरत थी वृहद् साधु सम्मेलन अजमेर के बाद छोटें-छोटें प्रांतीय साधु -सम्मेलन के आयोजन कर एकता के वातावरण बना रही थी।अंतत: संवत् २००१ का स्वर्णिम दिवस अक्षय तृतीया को वृहद्-साधु सम्मेलन के रूप में आया और विधिवत श्रमण संघ का गठन हुआ जिसमें मेवाड़ का नेतृत्व श्री अंबालालजी मसा. कर रहे थे।
              श्रमण संघ के गठन के बाद भी वो एकता नही बन पाई जिसकी अपेक्षा कॉन्फ़्रेन्स कर रही थी । कई प्रयासों के बाद पुनः अजमेर में सम्मेलन बुलाया गया श्री अम्बालालजी उस समय मंत्री पद पर थे तो जाना अवश्यसंभावी था । यह सम्मेलन एकता के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हुआ । इस सम्मेलन में महत्वपूर्ण निर्णय के तहत प्रवर्तक पद बनाया गया और श्री अम्बालालजी मसा. मेवाड़ के प्रथम प्रवर्तक बने।
             किसी भी क्षेत्र के विकास के लिये नेतृत्व करने वाले व्यक्ति को अगर लम्बा समय मिल जाए तो वो नए आयाम अवश्य स्थापित कर सकता है। आप इतिहास उठा कर देखिए श्रमण संघीय द्वितीय पट्टधर श्री आनंदऋषिजी मसा.,श्रमण संघीय महामंत्री श्री सौभाग्यमुनिजी मसा. एवं वर्तमान आचार्य श्री शिवमुनिजी मसा. को अन्य समकक्ष पदाधिकारीयों  से ज़्यादा समय का नेतृत्व मिला तो उन्होंने वो निष्पादन किया अथवा कर रहे है जो श्रमण संघ को नया आयाम प्रदान करेंगे।
ऐसे ही श्री अम्बालालजी मसा. को मेवाड़ की सेवा का जो अवसर समय के साथ मिला उसका उन्होंने सदुपयोग किया एवं जन-जन की आस्था के केंद्र बन गए । उन्होंने अपने जीवन काल में सदा सरलता एवं सहजता को अपना सर्वोत्तम गहना माना। कोई भी श्रावक या श्राविका उनके दर्शन को जाए तो कम से कम उनसे एक दो लाइन अवश्य सुनता और वो लाइने मीलों के सफ़र की थकान को छूमंतर कर देती। उनके दरबार में पदाधिकारी हो या सदस्य, गरीब हो या अमीर सब के लिए समान व्यवहार था।
           संत का जीवन सदा प्रेरणादाई रहता है लेकिन अगर किसी संत को योग्य शिष्य मिल जाए तो सोने ने सुगंध के समान माना जाता है। गुरु अंबेश के दो ऐसे शिष्य है जिनके लिये कुछ लिखे बिना लेख अधूरा रह जाएगा। “गुरु अंबेश के दो रतन:: एक सौभाग्य एक मदन” ये वाक्य मेवाड़ के हर श्रावक की ज़ुबान पर रहता है । इन दो शिष्यों ने गुरु अंबेश को मानो जन मानस के पटल पर अमर कर दिया।गुरु अंबेश ने अपने जीवन का अंतिम चातुर्मास मावली में किया एवं नश्वर देह का त्याग कर फ़तहनगर में अमर हो गए। पावनधाम फ़तहनगर की संरचना को इन्ही दोनो शिष्यों ने साकार किया। आज भी गुरु अंबेश की पुण्यतिथि पर पूरा मेवाड़ भक्ति के साथ फ़तहनगर पहुँचता है।प्रतिवर्ष होने वाली पैदल यात्रा का बखान देश भर में होता है।गुरु सौभाग्य के ज्ञानामृत से अपने आप को तृप्त करता है एवं गुरु मदन में गुरु अंबेश की छवि देखकर मानो अपने जीवन को धन्य समझता है।
   प्रवर्तक परम्परा में गुरु अंबेश के बाद श्री मगनमुनिजी मसा. उनके बाद श्री इंद्रमुनिजी एवं वर्तमान में श्री मदन मुनि की मेवाड़ के प्रवर्तक है ।वर्तमान प्रवर्तक श्री मानगुरु सेवा संस्थान में स्वास्थ्य लाभ लेरहे है। अंबेश गुरु की इस पावन   दिन हम सभी उन्हें सादर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं


लेखक 
रोशनलाल बड़ाला
महामन्त्री
मेवाड़ संघ मुम्बई





जो आग को न बुझा सके वह नीर क्या ?
जो लक्ष्य को न भेद सके वह तीर क्या ?
जो क्षुधा को तृप्त न कर सके वह क्षीर क्या ?
जो स्वयं को न जीत सके वह वीर क्या ?
“गुरु अंबेश सुवचन”

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